छत्तीसगढ़ में पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या एक ऐसे समय हुई है जब पत्रकारिता के प्रति समाज में गहरा संकट और सवाल उठ रहे हैं। मुकेश चंद्राकर की बेरहमी से हत्या ने देशभर में पत्रकारिता की स्वतंत्रता और ईमानदारी को लेकर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न कर दी हैं। यह घटना न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि पूरे देश के लिए एक चेतावनी बन गई है कि पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है। मुकेश चंद्राकर की हत्या ने यह सवाल खड़ा किया है कि क्या सच लिखने की सजा मौत हो सकती है?

पत्रकारिता की असली भूमिका

आजकल के पत्रकारों की कार्यशैली और उनके काम करने का तरीका बहुत बदल चुका है। बड़े मीडिया हाउसेस में बैठकर एंकर अपने प्रोपेगेंडा को फैलाने में लगे रहते हैं, जबकि असली पत्रकारिता गांवों और छोटे कस्बों में होती है, जहां पत्रकार आम लोगों की समस्याओं को सामने लाते हैं। पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने अपनी ज़िन्दगी के कई साल आदिवासी इलाकों में रहकर रिपोर्टिंग में बिताए। उन्होंने न केवल आदिवासियों की समस्याओं को उजागर किया, बल्कि उन मुद्दों को भी जनता के सामने लाया, जो आमतौर पर दबाए जाते हैं।

मुकेश चंद्राकर ने सड़क निर्माण में हुए भ्रष्टाचार का खुलासा किया, जो उनके लिए जीवन और मृत्यु का सवाल बन गया। छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख सड़क निर्माण परियोजना में गहरा भ्रष्टाचार था, जिसमें 56 करोड़ रुपये की सड़क को 102 करोड़ रुपये में दिखाकर सरकारी धन का गबन किया गया था। यह मामला मुकेश चंद्राकर ने अपनी रिपोर्टिंग के जरिए उजागर किया था, लेकिन उनकी ईमानदारी ने उन्हें जीवन की सबसे बड़ी कीमत चुकाने पर मजबूर कर दिया।

भ्रष्टाचार की सच्चाई

पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने जब सड़क निर्माण में हो रहे भ्रष्टाचार को उजागर किया, तो यह मामला सिवाय सरकारी अधिकारियों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इस भ्रष्टाचार में उनके सगे संबंधी भी लिप्त थे। सड़क निर्माण की परियोजना में जिस तरह से फर्जी तरीके से अतिरिक्त राशि का आवंटन किया गया, यह स्थानीय प्रशासन और ठेकेदारों की मिलीभगत का नतीजा था। मुकेश चंद्राकर ने जब इस भ्रष्टाचार को उजागर किया, तो वह यह नहीं जानते थे कि इसका विरोध करने का उन्हें इतना बड़ा खामियाजा उठाना पड़ेगा।

यह भ्रष्टाचार छत्तीसगढ़ के उन आदिवासी क्षेत्रों में हो रहा था, जहां पहले से ही बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। जहां सड़क, पानी, बिजली जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ लोगों को उपलब्ध नहीं हैं, वहीं कुछ लोग इन सुविधाओं के नाम पर करोड़ों रुपये का गबन कर रहे थे। मुकेश चंद्राकर ने इस अनाचार का पर्दाफाश किया था, और इसकी कीमत उन्हें अपनी जान से चुकानी पड़ी।

हत्या की दर्दनाक घटना

मुकेश चंद्राकर को उसकी जान से हाथ धोने की कीमत तब चुकानी पड़ी, जब उसने अपने काम को ईमानदारी से किया और एक भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया। उन्हें तड़पा तड़पा कर कुल्हाड़ी से मारा गया। इस तरह की बेरहमी से की गई हत्या ने न केवल पत्रकारिता जगत को झकझोर कर रख दिया, बल्कि समाज के हर तबके को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिरकार सच बोलने और भ्रष्टाचार का विरोध करने की कीमत क्या होनी चाहिए।

मुकेश चंद्राकर के परिवार और दोस्तों का कहना है कि वह अपने काम में पूरी तरह से समर्पित थे और जनता के लिए हमेशा खड़े रहते थे। पत्रकारिता के प्रति उनकी निष्ठा और उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत थे। लेकिन जब उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई, तो उन पर हमला किया गया। यह एक दुखद घटना थी, जिसने हमें यह सोचने पर मजबूर किया कि क्या अब पत्रकारिता का काम खतरे में है?

पत्रकारिता की स्थिति

आजकल पत्रकारिता के नाम पर केवल बड़े-बड़े मीडिया हाउसेस में एंकरिंग की जाती है, जो केवल प्रोपेगेंडा फैलाने का काम करते हैं। वहीं, पत्रकारिता का असली मतलब समाज की समस्याओं को सामने लाना, भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करना और समाज के हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज बनना है। पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने यही काम किया। उन्होंने भ्रष्टाचार, अत्याचार, और समाज में हो रही अन्य असमानताओं के खिलाफ आवाज उठाई। लेकिन आज का समय ऐसा है जहां ईमानदारी से काम करने वाले पत्रकारों को अक्सर दबाया जाता है, और अगर वे सच बोलते हैं, तो उन्हें डर और धमकियों का सामना करना पड़ता है।

आज के पत्रकार अपनी नौकरी और व्यक्तिगत सुरक्षा के बारे में अधिक चिंतित होते हैं और वे अपना काम केवल एक आरामदायक जोन से करते हैं, जिसमें कोई जोखिम नहीं होता। ऐसे समय में, मुकेश चंद्राकर जैसे पत्रकारों का उदाहरण हमें यह याद दिलाता है कि पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक मिशन है। यह समाज को सुधारने का एक माध्यम है, जो न केवल सत्ता, बल्कि समाज के हर तबके से जुड़ी कुरीतियों और भ्रष्टाचारों को उजागर करता है।

देश की खामोशी और नेताओं की प्रतिक्रिया

मुकेश चंद्राकर की हत्या के बाद देश में खामोशी का माहौल है। नेता खामोश हैं, बड़े पत्रकार खामोश हैं, और किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं आ रही है। यह खामोशी बहुत कुछ बयान करती है। जब एक पत्रकार अपनी जान देकर सच का साथ देता है, तो यह सिर्फ उस पत्रकार की नहीं, बल्कि समूचे पत्रकारिता जगत की हार होती है।

देश के नेताओं और बड़े पत्रकारों का इस मुद्दे पर चुप रहना एक बड़ी चिंता का विषय है। क्या यह लोकतंत्र की हत्या नहीं है? क्या यह सच बोलने की कीमत नहीं है? क्या हमें पत्रकारों की सुरक्षा और उनकी स्वतंत्रता पर विचार नहीं करना चाहिए? मुकेश चंद्राकर की हत्या के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है।

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