लोकसभा चुनाव 2024 : हैदराबाद से भाजपा प्रत्याशी माधवी लता ने बयान दिया कि महिलाओं का सड़कों पर चलना, या हिंदुओं का मंदिरों में पूजापाठ मुश्किल हो चुका, और इसकी वजह रजाकारों से लगाव रखने वाले लोग हैं. माना जा रहा है कि माधवी AIMIM लीडर असदुद्दीन ओवैसी को निशाने पर ले रही हैं. जानिए, कौन थे रजाकार, क्या संबंध था हैदराबाद से और कैसे वे गायब हो गए?

कौन थे रियासत के आखिरी नवाब

रजाकारों पर जानने से पहले एक बार हैदराबाद के आखिरी निजाम को जानते चलें, जो उस जमाने में देश के सबसे अमीर, लेकिन उतने ही कंजूस और अय्याश शख्स माने जाते थे. उनका पूरा नाम था- मीर उस्मान अली खान सिद्दकी असफ-जाह. कहा जाता है कि वे टेबल पर रखे दस्तावेजों को पेपरवेट की बजाए हीरे से दबाया करते, लेकिन खाने में टिन के बर्तनों का इस्तेमाल करते.

हैदराबाद रियासत के इस नवाब का सियासी दिमाग खूब चलता था. उन्होंने हर उस सत्ता से दोस्ती की, जो हैदराबाद के पड़ोसी राज्यों के खिलाफ थे. खासकर अंग्रेजों से. यहां तक कि जब पूरे देश में अंग्रेजी हुकूमत को हटाने की मुहिम चली हुई थी, निजाम अपनी वफादारियां निभा रहे थे. सत्ता बचाए रखने का यही हुनर था, जो बहुसंख्यक हिंदुओं वाली रियासत भी भारत की आजादी के आंदोलन का सीधा हिस्सा नहीं बन सकी.

हैदराबाद को अलग मुल्क बनाने की ख्वाहिश

निजाम के पास अपने दिमाग और अंग्रेजों से दोस्ती के अलावा एक और ताकत थी, वो थे रजाकार. ये आम लोगों से ही बनी फोर्स थी, जिसके पास हथियार चलाने का थोड़ा-बहुत प्रशिक्षण हुआ करता. ऊंचे ओहदे पर बैठे लोग काफी ट्रेंड होते और उनका काम था लोगों को रजाकार बनने के लिए उकसाना. इनमें से एक था हैदराबाद का रिटायर्ड अधिकारी महमूद नवाज खान. महमूद ने मजलिस इत्तेहाद उल मुस्लिमीन नाम का संगठन बनाया. इस चरमपंथी संगठन का मकसद था हैदराबाद को मुस्लिम देश बनाना. निजाम की इच्छा भी इसमें शामिल थी.

इस तरह बना रजाकार

संगठन के कुछ नेताओं ने आगे चलकर एक पैरामिलिट्री बनाई, जिसे रजाकार कहा गया. रजाकार अरबी शब्द है, जिसका मतलब है स्वयंसेवक. इसे अल्लाह का सिपाही भी कहा गया. ये आम लोगों से बनी वो सेना थी, जो वक्त-जरूरत हथियार उठा सकती थी. मूल रूप से ये लोग अरब और पठान थे, लेकिन फिर स्थानीय लोगों से घुलमिल गए. इसके साथ ही रजाकारों की ताकत बहुत बढ़ गई. साथ ही उनका आतंक और कट्टरता भी बढ़ती चली गई.

रियासत में कैसे थे हिंदुओं के हाल

हैदराबाद में तब करीब 85 प्रतिशत आबादी हिंदू थी, जबकि शेष मुस्लिम. लेकिन ऊंचे पदों पर केवल मुसलमान ही थे. यहां तक कि रियासत में ज्यादातर टैक्स हिंदुओं से ही वसूल जाते. चाहे घर में किसी बच्चे का जन्म हो, कोई मौत हो, या फिर खेती-बाड़ी. बहुसंख्यकों पर लादे इन्हीं करों से शाही खजाना बढ़ता ही चला गया.

धर्म बदलने के नाम पर हुए कत्लेआम

कासिम रिजवी नाम के मौलाना के नेतृत्व संभालने के बाद रजाकार आर्थिक जबर्दस्ती के अलावा मारकाट और धर्म परिवर्तन पर आमादा हो गए. कई मीडिया रिपोर्ट्स में जिक्र मिलता है कि कैसे रजाकार गांवों पर हमला बोलते और लोगों पर इस्लाम अपनाने का दबाव बनाते. मना करने पर पुरुषों की हत्या कर दी जाती, जबकि स्त्रियों से या तो रेप होता, या फिर उन्हें उठाकर ले जाकर जबरन शादी कर ली जाती. इनसे जन्मे बच्चे रजाकारों की संतान कहलाते. फ्रंटलाइन मैग्जीन में उस दौर को देख चुके लोगों का इंटरव्यू है.

क्या हुआ था भैरनपल्ली में

रजाकारों की बर्बरता की बात होती है तो भैरनपल्ली के नरसंहार का भी जिक्र आता है. ये रियासत का एक गांव था, जहां किसी भी तरह से रजाकार नहीं पहुंच पा रहे थे. जैसे ही लोग भीतर घुसने की कोशिश करते, गांववाले संगठित होकर पैरामिलिट्री पर हमला कर देते. लेकिन देश की आजादी के एक साल बाद अगस्त 1948 में रजाकारों ने हैदराबाद पुलिस के साथ मिलकर भैरनपल्ली पर हमला कर दिया. गांव के मजबूत पुरुषों को गोली मारने या आग में झोंक देने के बाद औरतों से बर्बर बलात्कार हुए. इस नरसंहार की खबर दिल्ली तक भी पहुंची, और एक्शन की तैयारी होने लगी.

लेकिन पहले दिल्ली चुप क्यों थी डॉ. के.एम. मुंशी की लिखी ‘एंड ऑफ एन इरा’ किताब में इन सारी बातों का उल्लेख है. मुंशी हैदराबाद में भारत के एजेंट जनरल थे. किताब के अनुसार आजादी के बाद देश के सामने कई समस्याएं थीं, जैसे कश्मीर मामला. देश को एक साथ कई मोर्चों पर लड़ना न पड़े, इसके लिए हैदराबाद निजाम और भारत सरकार के बीच एक समझौता हुआ. इसमें अलग देश की मांग कर रहे निजाम को कुछ छूट देने की बात थी.

रजाकार लीडर ने हिंदुओं की राख बचने की धमकी दी

स्टैंडस्टिल समझौता सालभर के लिए था. इस दौरान देश को पूरा वक्त मिल जाता कि वो हिंदू बहुल रियायत पर बाकी रियासतों की तरह फैसला ले सके. हालांकि समझौते का फायदा उठाते हुए उस्मान अली के रजाकारों ने आतंक मचाना शुरू कर दिया. तत्कालीन राज्य सचिव वीपी मेनन की पुस्तक- द इंटीग्रेशन ऑफ स्टेट्स में रजाकारों के नेता कासिम रिजवी के एक भाषण का जिक्र है.

उसने कहा था कि अगर भारत ने हैदराबाद में घुसपैठ की कोशिश की, तो उसे डेढ़ करोड़ हिंदुओं की राख और हड्डियों के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा. खुद भारत सरकार ने साल 1948 में एक श्वेत पत्र निकाला, जिसमें मराठवाड़ा (तब हैदराबाद रिसायत का हिस्सा) के चार जिलों में 50 से ज्यादा बर्बरताओं की बात कही. इन घटनाओं में 2 सौ से ज्यादा जानें गई थीं.

इंडियन आर्मी का ऑपरेशन पोलो

भैरनपल्ली नरसंहार के बाद स्थानीय हिंदू संगठन एकजुट होने लगे. इससे तत्कालीन सरकार पर दबाव बढ़ा कि वो समझौते को नजरअंदाज कर कत्लेआम मचा रही पैरामिलिट्री पर एक्शन ले. 13 सितंबर 1948 को आर्मी ने ऑपरेशन पोलो सैन्य अभियान शुरू किया. तब पता लगा कि रजाकारों के पास न तो ताकत थी, न ही संगठित सेना. आखिरकार निजाम ने अपनी बर्बर सेना को इंडियन आर्मी के सामने सरेंडर करने को कह दिया.

रजाकार मान रहे थे कि पाकिस्तान इस जंग में उनका साथ देगा लेकिन अपने ही मुद्दों से जूझते उस देश के पास हस्तक्षेप की ताकत नहीं थी. 18 सितंबर को रजाकारों के नेता कासिम रिजवी के अरेस्ट के साथ हैदराबाद का भारत में विलय हो गया. हालांकि रजाकारों के आतंक की कहानियां आग में दबी चिंगारी की तरह जब-तब भभक जाती हैं.

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