‘न्यायपालिका की बढ़ती भूमिका लोकतंत्र के लिए खतरा’
राज्यसभा के प्रशिक्षु कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, “हमने उस दिन की कभी कल्पना नहीं की थी जब न्यायपालिका कानून बनाएगी, कार्यपालिका का स्थान लेगी और राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद को आदेश देगी।” उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस हालिया आदेश का हवाला दिया जिसमें कोर्ट ने राष्ट्रपति को किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेने के लिए कहा है। उपराष्ट्रपति का मानना है कि यह एक असंवैधानिक और असाधारण हस्तक्षेप है।
धनखड़ ने आगे कहा कि जब न्यायपालिका यह कहती है कि राष्ट्रपति को तीन महीने में कोई निर्णय लेना ही होगा, वरना वह विधेयक अपने आप पारित माना जाएगा, तो यह पूरी संवैधानिक प्रक्रिया को ही चुनौती देता है। उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह की व्यवस्थाएं कभी संविधान निर्माताओं ने नहीं सोची थीं।
‘राष्ट्रपति को निर्देश देना गंभीर मुद्दा’
उपराष्ट्रपति ने कहा, “देश में क्या हो रहा है? हमें बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। अगर अब राष्ट्रपति को भी समयसीमा में बाधित किया जा रहा है और उन्हें निर्देशित किया जा रहा है, तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। राष्ट्रपति भारतीय गणराज्य के सर्वोच्च संवैधानिक पद हैं और उन्हें निर्देश देने का अधिकार किसी को नहीं है।”
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति संविधान की रक्षा करने की शपथ लेते हैं और उनका पद किसी भी तरह की कार्यपालिका या न्यायपालिका से ऊपर होता है। “जब राष्ट्रपति पर भी समयसीमा तय कर दी जाएगी और उनका निर्णय बाध्यकारी नहीं रहेगा, तब लोकतांत्रिक प्रक्रिया का क्या होगा?” — उपराष्ट्रपति ने सवाल उठाया।
‘सुपर संसद’ बन रही है न्यायपालिका?
धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की आलोचना करते हुए कहा कि अब ऐसा प्रतीत होता है जैसे न्यायपालिका ‘सुपर संसद’ की भूमिका निभा रही है। “अब जज ही विधायी चीजों पर फैसला करेंगे, वही कार्यकारी जिम्मेदारी निभाएंगे और उनका कोई उत्तरदायित्व भी नहीं होगा, क्योंकि भारत का कानून उन पर लागू ही नहीं होता।”
यह टिप्पणी भारत के लोकतंत्र के तीनों स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – के बीच संतुलन को लेकर हो रही चर्चाओं के केंद्र में है। उपराष्ट्रपति ने यह स्पष्ट किया कि संविधान ने इन तीनों स्तंभों को अलग-अलग भूमिका दी है और किसी एक स्तंभ द्वारा अन्य की भूमिका का अतिक्रमण लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो सकता है।
अनुच्छेद 145(3) की याद दिलाई
उपराष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 145(3) की भी याद दिलाई। उन्होंने कहा कि “संविधान की व्याख्या करने का अधिकार केवल संविधान पीठ को है, जिसमें कम से कम पांच न्यायाधीश होने चाहिए। सामान्य पीठों को यह अधिकार नहीं है कि वे संविधान के मूल ढांचे में बदलाव करें या व्याख्या करें।”
धनखड़ ने कहा कि कोर्ट को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी निर्णय से पहले अपनी सीमाओं का ध्यान रखें। “आप संविधान की व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन आप संविधान से ऊपर नहीं हो सकते,” उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा।
लोकतंत्र की जड़ों पर आघात
धनखड़ के इस बयान को केवल एक संवैधानिक बहस के तौर पर नहीं, बल्कि एक चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। उनका कहना है कि यदि इस तरह न्यायपालिका के आदेशों से कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियां सीमित होती रहीं, तो भारत का लोकतंत्र संतुलन खो देगा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि “सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अंतिम हो सकता है, लेकिन यह सर्वज्ञ या सर्वथा सही नहीं माना जा सकता।”
धनखड़ ने यह सवाल भी उठाया कि यदि कोई संस्था जवाबदेह नहीं है, तो क्या वह संस्थान लोकतंत्र में अपनी भूमिका को सही ढंग से निभा सकती है? उनका इशारा साफ तौर पर न्यायपालिका की ओर था, जिसे संविधान के तहत कोई प्रत्यक्ष जवाबदेही नहीं दी गई है।
कानून का पालन किसे करना है?
उपराष्ट्रपति ने यह भी कहा कि “राष्ट्रपति संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं, जबकि हम – सांसद, मंत्री, उपराष्ट्रपति और जज – संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं। हम ऐसी स्थिति नहीं चाहते जहां राष्ट्रपति को निर्देश दिए जाएं।” यह बयान भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के उस मूल सिद्धांत की याद दिलाता है जहां राष्ट्रपति एक प्रतीकात्मक और सर्वोच्च पद है, जिसे राजनीतिक और वैधानिक निर्णयों के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।