सुप्रीम कोर्ट ने संभल हिंसा के मामले में एक अहम कदम उठाते हुए निचली अदालत को इस मामले पर सुनवाई करने से रोक दिया है। कोर्ट ने कहा कि उसे निचली अदालत के फैसले पर आपत्तियां हैं और इस मामले पर अब उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट) के निर्देशों के आधार पर ही कार्रवाई की जा सकती है। इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासन को कानून व्यवस्था बनाए रखने और शांति सुनिश्चित करने की भी हिदायत दी है।
मस्जिद का सर्वे और उसके बाद की हिंसा
इस पूरे विवाद की शुरुआत संभल जामा मस्जिद के सर्वे से हुई थी, जिसे निचली अदालत ने आदेशित किया था। एडवोकेट कमिश्नर द्वारा मस्जिद का सर्वे करने के बाद, संभल में हिंसा भड़क उठी, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हुए। इस हिंसा के बाद मस्जिद समिति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी।
मस्जिद समिति ने अपनी याचिका में कहा था कि निचली अदालत का आदेश गलत था और उस आदेश पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को स्वीकार करते हुए निचली अदालत को 8 जनवरी तक मामले की सुनवाई करने से रोक दिया। साथ ही, कोर्ट ने उच्च न्यायालय से यह भी निर्देश दिया कि याचिका दाखिल होने के तीन दिनों के भीतर उस पर सुनवाई की जाए।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और प्रशासन की जिम्मेदारी
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कुछ बेहद महत्वपूर्ण निर्देश दिए हैं। सबसे पहले, कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि निचली अदालत के फैसले पर उसे आपत्ति है और अब इस पर उच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर ही कोई कार्रवाई हो सकेगी। इसके अलावा, कोर्ट ने उत्तर प्रदेश प्रशासन को यह भी निर्देश दिया है कि वह कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखें और शांति तथा सद्भाव बनाए रखें।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस तरीके से निचली अदालत ने जल्दी-जल्दी सुनवाई की और सर्वे का आदेश दिया, उससे स्थानीय लोगों के बीच संदेह पैदा हुआ। इसी संदेह के कारण हिंसा भड़की, जिसके चलते चार लोगों की जान चली गई और कई लोग घायल हुए। कोर्ट ने यह भी कहा कि पुलिस द्वारा की गई फायरिंग के कारण कई निर्दोष लोगों की जान गई, और यह स्थिति और भी अधिक संवेदनशील हो गई।
हाईकोर्ट से तीन दिनों में सुनवाई का निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से यह भी पूछा कि वे पहले क्यों उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट) नहीं गए। इसके बाद, कोर्ट ने निर्देश दिया कि अब याचिकाकर्ता उच्च न्यायालय के पास इस मामले को लेकर जाएं और वहां से ही कोई निर्णय लिया जाए। इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय को निर्देश दिया कि यदि याचिका दाखिल की जाती है, तो उस पर तीन दिनों के भीतर सुनवाई की जाए।
एडवोकेट कमिश्नर की रिपोर्ट पर रोक
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया है कि एडवोकेट कमिश्नर की रिपोर्ट को सीलबंद लिफाफे में रखा जाए और उसे सार्वजनिक नहीं किया जाए। इसका कारण यह था कि रिपोर्ट सार्वजनिक होने से माहौल और भी अधिक तनावपूर्ण हो सकता है और हिंसा को बढ़ावा मिल सकता है। कोर्ट ने साफ कहा कि रिपोर्ट को फिलहाल किसी भी परिस्थिति में सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।
संभावित परिणाम और स्थानीय प्रशासन की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश न केवल कानूनी दृष्टिकोण से अहम है, बल्कि यह इस मामले के संवेदनशील राजनीतिक और सामुदायिक पहलू को भी ध्यान में रखकर लिया गया है। इस तरह के मामलों में कानून के शासन के पालन के साथ-साथ स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है, ताकि शांति और सद्भाव बनाए रखा जा सके।
इससे पहले, निचली अदालत ने जिस तरीके से मामला सुलझाने की कोशिश की, उसने स्थानीय लोगों में शक उत्पन्न किया, जिसके बाद हिंसा की घटनाएं सामने आईं। अब सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि इस मामले में कोई भी बड़ा कदम उच्च न्यायालय के निर्देशों के बिना नहीं उठाया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का असर
इस फैसले का असर केवल कानूनी दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि राज्य और केंद्र सरकारों की नीतियों पर भी पड़ सकता है। खासकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां धार्मिक और सामाजिक मुद्दे अक्सर संवेदनशील हो सकते हैं, सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से यह सुनिश्चित होगा कि आगे इस मुद्दे पर कोई भी कदम शांति और कानून के दायरे में उठाया जाएगा।
इसके साथ ही, उच्च न्यायालय से यह उम्मीद की जा रही है कि वह इस मामले पर शीघ्र निर्णय लें ताकि सभी पक्षों को न्याय मिल सके और कोई भी अप्रिय घटना न घटे। इस पूरे घटनाक्रम में कोर्ट ने जो दिशा-निर्देश दिए हैं, उनका उद्देश्य विवादों को बढ़ने से रोकना और एक शांतिपूर्ण वातावरण सुनिश्चित करना है।
इस मामले में मस्जिद समिति की तरफ से वरिष्ठ वकील हुजैफा अहमदी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। वहीं, प्रतिवादी पक्ष की तरफ से वकील विष्णु शंकर ने अदालत में अपनी दलीलें प्रस्तुत कीं। दोनों पक्षों के बीच हुई बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय लिया।